Wednesday, August 29, 2012

INN BAHAVNAON KO VRIHIIT DRISHTI AUR NAZARIYE SE DEKHA JANA CHAHIYE....!!


Poems Submitted by Vibha Tailang (Chaudhary) (1983) - 26-Nov-2009 10:40 Dedicated to the 26/11 memory और अब कब तक सहेंगे ...?? आत्तंक के साये में अब और न जियेंगे !! यह शुरुआत है एक जंग, हर गलत के खिलाफ जो हाथ मारने को उठे निर्दोष को, वह रोक दिए जायेंगे !! आतंक मन पर हो या तन पर अब और ना सहे जायेंगे, अब और ना सहे जायें. हमारी मान्शक्ति, भारी पड़ेगी उन् सब हथियारों पर यह आनेवाले हर दिन में, हम साबित कर बतायेंगे हम सिर्फ बातों के धनी, कागज़ के शेर नहीं हम अब और ना सहेंगे, आवाज़ रोज़ उठाएंगे और इससे साबित कर बतायेंगे !!! कि पार्लिआमेंट हो या देश का कोई हिस्सा, अब हम आतंक के काले साये को मन पर भी नहीं छाने देंगे !!! हम तैयार हैं किसी जाँच परख के लिए पर अब और कब तक सहेंगे ...अब और कब तक सहेंगे ??? भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, चीन, अमेरिका ...जो भी हो जवाब चाहिए....???? अब हम आतंक के साये में और ना जियेंगे और ना जियेंगे !!! यह है शपथ ! यह है शपथ ! मुंबई के शहीदों को याद कर उन सबको श्रधांजलि जो जो इंनके शिकार हुए, और हमारे लिए लड़ कर शहीद हुए !!! विभा तैलंग (चौधरी) (१९८३)

Saturday, August 25, 2012

Churches' uprising against Israel


Churches' uprising against Israel


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Churches' uprising against Israel
We have to appreciate the solidarity moves by the churches.
While Arabs are busy with revolutions and internal wars, and are largely absent from what is happening in Palestine and Jerusalem with Israel's ethnic cleansing of the local population, American and European civil society is taking action against the Israeli occupation. One particular sector which has become very active and started to play an effective role addressing Israeli crimes is the Christian community. Churches are causing such a headache to the Israeli government that their activities have risen to a level described by some media as the "churches' uprising against Israel".
For example, in recent weeks, the Committee for the Presbyterian Church in America moved to demand the withdrawal of investments in companies supporting the Israeli occupation. Haaretz newspaper published a report last week on the committee's move to draw attention to the continuing Israeli occupation of Palestinian land. According to the report, "After a long and hot debate, Commission 15 of the Protestant Presbyterian Church in the United States approved a resolution demanding the withdrawal of investments by three companies which deal with Israel. The question of whether the BDS (Boycott, divestment and sanctions) movement is gaining influence, is one of the hottest issues being discussed among the most politically active members in the Jewish community, at a time when many people take this issue seriously."

In like manner, the World Council of Churches called on the Israeli government to freeze the construction or expansion of settlements without restriction, as a first step towards dismantling them all over the Palestinian territories. The Council clarified "that the presence of some 200 Israeli settlements, with more than 450,000 settlers in the occupied Palestinian territory, is incompatible with peace." Furthermore, the WCC said that Israeli settlements and the separation wall have a direct impact on the lives and dignity of the Palestinian people, as they prevent their access to land and water resources, limit freedom of movement, and their right to life, education and access to health care, and work to destroy the Palestinian economy.

Commenting on the Council's decision in the London-based Al Quds Al Arabi in 2009, Dr. Anis Mustafa Qasim pointed out that, "The continuous settlement in the territories outside the internationally recognised borders of Israel (the Green Line of 1949) is rejected by almost all the world, and finds a widespread non-recognition because it is illegal, unfair, contrary to peace and contrary to the legitimate interests of the State of Israel." The World Council of Churches, he wrote, is demanding "that the Israeli government freezes, in good faith and as a matter of urgency, all work on settlement construction and expansion, as a first step in the direction of the removal of all settlements". Such words, said Dr. Qasim, "are not for an Arab or a Palestinian official, and are not part of an Arab or Palestinian formal statement or decision, although we hear similar statements from time to time for domestic consumption. It is part of a statement issued by the Central Committee of the World Council of Churches in its session in the Council's headquarters in Geneva in the period between August 26 and September 2, 2009, and it was announced in a six-page statement in English all dedicated to the issue of Israeli settlements in the West Bank, and the abolition of church investments and the imposition of a boycott."

The Council of Ecumenical Churches, based in Geneva, called "its members and the public to take action to confront Israel's decision to approve the construction of 900,000 new homes" in East Jerusalem. The Secretary-General of the CEC, Father Samuel Kobia, called upon member organisations "to act in coordination with each other to push the Israeli government to reverse its decision" on the new settlements Father Kobia expressed "great disappointment" and said that his organisation" strongly condemns Israel's decision to expand the illegal settlement of Gilo".

Similarly, a report from the General Assembly of the American Presbyterian Church at its 217th annual conference, which was attended by 500 delegates from all over the United States, refers to discussions about the question of withdrawing church investments from companies operating in Israel and the Occupied Territories, which help in one way or another to consolidate the Israeli occupation or provide the tools for violence and destruction to Israel. The report noted "an Israeli and Jewish concern to open the debate on the withdrawal of investments and that the Israeli Embassy hosted a group of eminent personalities from Christian leaders in the United States, and the Jewish American Council also condemned this anti-Israel activity."

The United Church of Christ has "approved the divestment of companies that help in building the apartheid wall or settlements or support the occupation."

Thus, while some Arabs move away from the Palestinian cause, we have to appreciate the solidarity moves by the churches, and stand in respect to all those who stand with the utmost courage and defiance side by side with Palestine. They, and we, condemn Israel's crimes and Washington's support for them, and call for their political and military leaders to be brought before international tribunals on war crimes charges.


The author is Palestinian writer who specialises in Israeli affairs. This article was translated from the Arabic which appeared on www.arabs48.com on 11 August

समानता का मूल विभेद की मनाही नहीं करता!


समानता का मूल विभेद की मनाही नहीं करता!

 Posted by रजनीश के झा (Rajneesh K Jha) मंगलवार, अगस्त 28, 2012

 समानता का मतलब सबको आँख बंद करके एक समान मानना नहीं है, बल्कि सरकार के द्वारा समान लोगों के साथ समान व्यवहार करना है, जिसके लिए एक समान लोगों, समूहों और जातिओं का वर्गीकरण करना समानता के मूल अधिकार को लागू करने के लिए अत्यंत जरूरी है! अत: अनुच्छेद 14 में वर्णित समानता के मूल अधिकार को वास्तव में सकारात्मक रूप से लागू करने के लिये दमित और सदियों से दबे-कुचले वर्गों को अजा, अजजा और पिछड़े वर्गों में वर्गीद्भत करके उनको सरकार एवं प्रशासन में समान भागीदारी प्रदान करना संविधान में वर्णित समानता के मूल अधिकार का असली मकसद है।

जिसके विरुद्ध किसी भी प्रकार की व्यवस्था समानता के मूल सिद्धान्त की मूल भावना के विपरीत और अमानवीय होगी। इन दिनों मोहनदास गांधी द्वारा धोखे से सेपरेट इलेक्ट्रोल के हक को छीनकर और अनशन के जरिये भारत रत्न बाबा साहेब डॉ. अम्बेड़कर को विवश करके अजा एवं अजजा वर्गों पर जबरन थोपे गये आरक्षण को समाप्त करने और छीनने के लिये फिर से लगातार हमले हो रहे हैं। स्वघोषित और स्वनामधन्य अनेक ऐसे पूर्वाग्रही लेखक और लेखिकाओं द्वारा जिन्होंने संविधान को पढना तो दूर, शायद कभी संविधान के पन्ने तक नहीं पलटे, वे भी संविधान की व्याख्या कर रहे हैं। लोगों को भ्रमित करते हुए लिख रहे हैं कि सरकारी सेवाओं और शिक्षण संस्थाओं में अजा एवं अजजा को आरक्षण केवल दस वर्ष के लिये दिया गया था, जिसे बार-बार बढाया जाता रहा है।!

 ऐसे लेखकों से मेरा सदैव की भांति फिर से इस आलेख के माध्यम से आग्रह है कि वे ऐसा लिखने या कहने से पूर्व कितना अच्छा होता कि उस प्रावधान का भी उल्लेख कर देते, जिसमें और जहॉं लिखा गया है कि अजा एवं अजजा के लिये दस वर्ष के आरक्षण का प्रावधान क्यों और किसलिए किया गया था! ऐसे विष वमन करने वालों से मसाज के सौहार्द को बचाने के लिये मैं साफ कर दूँ कि दस वर्ष का आरक्षण का प्रावधान अनुच्छेद 334 में संसद और विधान सभाओं में प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिए किया गया था, न कि नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के लिए?

अनुच्छेद 15 (4) एवं 16 (4) के अनुसार नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के लिए? अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जन जातियों के लिए आरक्षण का प्रावधान संविधान का स्थायी हिस्सा है! यह अजा एवं अजजातियों का मूल अध्किार है। जिसे न कभी बढाया गया और न ही बढ़ाये जाने की जरूरत है! हॉं इस प्रावधान को अनेक बार इस देश की महान न्यायपालिका के अनेक निर्णयों ने अनेक प्रकार से कमजोर करने का प्रयास जरूर किया है! जिसे नयी दिल्ली पर शासन करने वाले हर दल की केन्द्रीय सरकार के नकार दिया और समय-समय पर संसद की संवैधानिक विधयी शक्ति के मार्फत अनेक बार मजबूत और स्पष्ट किया है! इसके उपरान्त भी भारत की न्यायपालिका में विचारधारा विशेष से ग्रसित कुछ जजों की ओर से अजा एवं अजजा वर्गों पर कुठाराघात करने वाले निर्णय आते ही रहते हैं।

 पिछले दिनों पदोन्नति में आरक्षण पर रोक सम्बन्धी निर्णय को भी सामाजिक न्याय के सिद्धान्त के विपरीत इसी प्रकार का एक विभेदकारी निर्णय बताया जा रहा है। जिसे निष्प्रभावी करने के लिये केन्द्र सरकार और सभी राजनैतिक दल सहमत हैं और इस बारे में शीघ्र ही संविधान में संशोधन किये जाने की आशा की जा सकती है। कुछ सामाजिक न्याय में आस्था नहीं रखने वाले लोगों का कहना है कि संविधान की प्रस्तावना में केवल ‘समानता’ की बात कही है, उसमें कहीं भी आरक्षण का कोई उल्लेख नहीं किया गया है। इसलिये ऐेसे लोग आरक्षण को संविधान की प्रस्तावना की भावना के विपरीत मानते हैं। जहॉं तक संविधान की प्रस्तावना में किसी विषय का उल्लेख होने या न होने के सवाल है तो मेरा इस बारे में विनम्रतापूर्वक यही कहना है कि हर व्यक्ति अपने हिसाब (स्वार्थ) और अपनी सुविधा से इसका अर्थ लगाता है और अपनी सुविधा से ही किसी बात को समझना चाहता है!

 अन्यथा संविधान की प्रस्तावना में साफ शब्दों में लिखा गया है कि ‘‘अवसर की समता’’ और ‘‘व्यक्ति की गरिमा’’ सुनिश्‍चित करना संविधान का लक्ष्य है! जिसे पूर्ण करने के किये ही सरकारी नौकरियों, सरकारी शिक्षण संस्थानों और विधायिका में जातिगत आरक्षण की व्यवस्था की गयी है! इसके आलावा ये बात भी बिनापूर्वाग्रह के समझने की है कि संविधान की प्रस्तावना में सब कुछ और हर एक विषय को विस्तार से नहीं लिखा जा सकता! ‘‘अवसर की समता’’ और ‘‘व्यक्ति की गरिमा’’ सुनिश्‍चित करने के प्रावधान का प्रस्तावना में उल्लेख करने के आधार पर ही आज भारत में महिलाओं, छोटे बच्चों और नि:शक्तजनों के लिए हर स्तर पर विशेष कल्याणकारी प्रावधान किये गए हैं! जो अनेक बार सुप्रीम कोर्ट द्वारा भी संविधान सम्मत ठहराये जा चुके हैं।

 संविधान की प्रस्तावना में तो स्पष्ट रूप से कहीं भी निष्पक्ष चुनाव प्रणाली के बारे में एक शब्द तक नहीं लिखा गया है, लेकिन ‘‘अभिव्यक्ति’’ शब्द सब कुछ खुद ही बयां करता है! इस प्रकार संविधान की प्रस्तावना में केवल मौलिक बातें ही लिखी जाती हैं। इसीलिये संविधान की प्रस्तावना को संविधान का आमुख भी कहा जाता है। लेकिन हम सभी जानते हैं कि केवल चेहरा देखकर ही अन्तिम निर्णय नहीं लिया जा सकता। इसलिये प्रस्तावना सब कुछ या अन्तिम सत्य नहीं है, बल्कि सम्पूर्ण संविधान और संविधान पर न्यायपालिका के निर्णयों के प्रकाश में विधायिका की नीतियॉं ही संविधान को ठीक से समझने का मार्ग प्रशस्त करती हैं। अत: यदि हममें से जो भाी संविधान के जानकर हैं और यदि हम देश और समाज में सभी की खुशहाली चाहते हैं तो हमें अपने ज्ञान का उपयोग देश के सभी लोगों के लिए और विशेषकर वंचित तथा जरूरतमंद लोगों के हित में उपयोग करना चाहिये।

न का लोगों को भड़काने या भ्रमित करने के लिये, जैसा कि कुछ पूर्वाग्रही लोग करते रहते हैं। अन्त में, मैं सामाजिक न्याय के विरोधी लोगों, विचारकों, चिन्तकों और लेखकों से कहना चाहता हूँ कि वे इस बात को समझने का प्रयास करें कि आरक्षित वर्गों में शामिल जातियों को विगत में हजारों सालों तक जन्म, वंश और जाति के आधार पर न मात्र उनके हकों से वंचित ही किया गया, न मात्र उनके हकों को छीना और लूटा ही गया, बल्कि उन्हें कदम-कदम पर सामाजिक, सांस्द्भतिक, शैक्षणिक और आर्थिक रूप से लगातार उत्पीड़ित करके, उनका शोषण भी किया जाता रहा है! ऐसे में इन वर्गों में शामिल जातियों का उत्थान करना और उनको उनके हकों को वापिस देना इस देश के शोषकों के वंशजों और सरकार का कानूनी, नैतिक और संवैधानिक दायित्व है। जिसे मोहन दास कर्मचन्द गांधी के धोखेभरे निर्णयों के बाद केवल जातिगत आरक्षण के मार्फ़त ही सुधारे जाने की आधी अधूरी आशा की जा सकती है!

 यदि अभी भी सच्चाई तथा न्याय के सच्चे पक्षधर मो. क. गांधी के अन्याय से आरक्षित वर्गों को बचाना चाहते हैं और देश से आरक्षण को समाप्त करना चाहते हैं, तो उनको चाहिये कि वे अजा एवं अजजातियों को सेपेरेट इलेक्ट्रोल का छीना गया हक वापिस दिलाने में सच्चा सहयोग करें। अन्यथा आरक्षण को खुशीखुशी सहने की आदत डालें, क्योंकि संवैधानिक आरक्षण के समाप्त होने की कोई आशा नहीं है। आरक्षण किसी प्रकार का विभेद या समानता मूल अधिकार का हनन नहीं करता है। बल्कि यह न्याय करने का एक संवैधानिक तरीका बताया और माना गया है। इसीलिये संविधान में जाति, धर्म आदि अनेक आधारों पर वर्गीकरण (जिसे कुछ लोग विभेद मानते हैं) करने को हमारे संविधान और विधायिका द्वारा मान्यता दी गयी है! प्रोफ़ेसर प्रद्युमन कुमार त्रिपाठी (बीएससी, एलएल एम, दिल्ली, जेएसडी-कोलंबिया) लिखित ग्रन्थ ‘‘भारतीय संविधान के प्रमुख तत्व’’ (जिसे भारत सरकार के विधि साहित्य प्रकाशन विभाग द्वारा पुरस्द्भत और प्रकाशित किया गया है) के पेज 277 पर कहा गया है कि- जब समाज के लोगों का स्वयं विधायिका ही वर्गीकरण कर देती है तो समानता के मूल अधिकार (के उल्लंघन) संबंधी कोई गंभीर प्रश्‍न उठने की सम्भावना नहीं होती (जैसे की कुछ पूर्वाग्रही लोगों द्वारा निहित स्वार्थवश सवाल उठाये जाते रहे हैं), क्योंकि....विधायिका विशेष वर्गों की समस्याओं, आवश्यकताओं तथा उलझनों को ध्यान में रखकर ही उनके लिये विशेष कानून बनाती है, असंवैधानिक या वर्जनीय विभेद के उद्देश्य से नहीं!

उदाहरणार्थ केवल हिन्दुओं (हिन्दू आदिवासियों को छोड़कर) के लिए ‘हिन्दू विवाह अधिनियम’ बनाने का उद्देश्य हिन्दुओं (जिसमें में भी हिन्दू आदिवासियों पर ये लागू नहीं होता है) तथा अन्य धर्मों के अनुयाईयों में (सामान्य हिन्दुओं और आदिवासी हिन्दुओं में) भेद करना नहीं है, बल्कि संसद द्वारा बनाया गया यह अधिनियम हिन्दुओं (आदिवासी हिन्दुओं सहित) के इतिहास, उनकी मान्यताओं, उनके सामाजिक विकास के स्तर तथा उनकी आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को ध्यान में रखते हुए, उनके कल्याण की कामना से पारित किया गया है। अत: यह अधिनियम केवल हिन्दुओं (हिन्दू आदिवासियों को छोड़कर) पर लागू होता है तो भी कोई हिन्दू तथा अहिन्दू (सामान्य हिन्दू और आदिवासी हिन्दू) इसे इस आधार पर चुनौती नहीं दे सकते कि यह हिन्दू तथा अहिन्दू (सामान्य हिन्दू और आदिवासी हिन्दू) में कुटिल विभेद करता है। संविधान का अनुच्छेद 14 (समानता का मूल अधिकार) विभेद की मनाही नहीं करता, वह केवल कुटिल विभेद की मनाही करता है, वर्गीकरण की मनाहीं नहीं करता, कुटिल वर्गीकरण की मनाहीं करता है!

 जिसे सुप्रीम कोर्ट ने एन एम टामस, ए आई आर. 1976, एस सी 490 में इस प्रकार से स्पष्ट किया है- सरकारी सेवाओं में नियुक्ति और पदोन्नति पाने के सम्बन्ध में अजा और अजजा के नागरिकों को जो सुविधा प्रदान की गयी है, वह अनुच्छेद 16 (4) के प्रावधानों से आच्छादित न होते हुए भी स्वयं मूल अनुच्छेद 16 खंड (1) के आधार पर ही वैध है, क्योंकि यह प्रावधान निश्‍चय ही एक विशिष्ठ पिछड़े हुए वर्गों (अजा, अजजा एवं अन्य पिछड़ा वर्ग) के लोगों का संविधान के अनुच्छेद 46 में उपबंधित नीति निदेशक तत्व की पूर्ति करने तथा अनुच्छेद 335 में की गयी घोषणा की कार्यान्वित करने के उद्देश्य से किया गया, वैध वर्गीकरण है जो समानता के मूल अधिकार का उल्लंघन नहीं, बल्कि इसका सही और सकारात्मक क्रियान्वयन करता है।

 पश्‍चिम बंगाल राज्य बनाम अनवर अली सरकार, ए आई आर 1952 एस सी 75, 88 में सुप्रीम कोर्ट ने साफ शब्दों में कहा है कि- समानता का मतलब सबको आँख बंद करके एक समान मानना नहीं है, बल्कि सरकार के द्वारा समान लोगों के साथ समान व्यवहार करना है, जिसके लिए एक समान लोगों, समूहों और जातिओं का वर्गीकरण करना समानता के मूल अधिकार को लागू करने के लिए अत्यंत जरूरी है! अत: अनुच्छेद 14 में वर्णित समानता के मूल अधिकार को वास्तव में सकारात्मक रूप से लागू करने के लिये दमित और सदियों से दबे-कुचले वर्गों को अजा, अजजा और पिछड़े वर्गों में वर्गीद्भत करके उनको सरकार एवं प्रशासन में समान भागीदारी प्रदान करना संविधान में वर्णित समानता के मूल अधिकार का असली मकसद है। जिसके विरुद्ध किसी भी प्रकार की व्यवस्था समानता के मूल सिद्धान्त की मूल भावना के विपरीत और अमानवीय होगी।

 डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’