Saturday, April 24, 2010

लाल सलाम के काले सच

लाल सलाम के काले सच/ALOK TOMAR


( MEIN INKE BATON SE KAFI HAAD TAK SAHMAT HOON, YE LOG VESTED INTEREST RAKHNE WALON KE HATHON KE KHILOONA BANN CHUKE HEIN, JINHE DHAN AUR SATTA CHAHIYE,...CHAHE VE MAOVADI NETA HON YA STHANIYE NETA....YEHI VAJAH HAI KI LATE SHRI KANU SANYAL, FOUNDER MEMBER OF NAXAL MOVEMENT IN INDIA, NE AANTIM DENON MEIN DIYE AAPNE SAKSHTKARON MEIN MAOVADIYON KE HINSATMAK KARVAIYON KI KILAFAT KI THI....NIYAMIT ROOP SE SCHOOL, COLLEGE, PANCHYAAT BHAVAN,HOSPITAL,RAILWAY TRACKS,HEALTH CENTRE,TRAINING CENTRES UDAANEIN...NIRDHOSH LOGON KI HATYAIEN KARNE....INSE SABIT HOTA HAI KI VEH GARIB/SHOSHITON KE HEET NAHIN CHAHTEIN HEIN BALKI SIRF AAPNI PRABHUTA BANAYE RAKHNE CHAHTE HEIN....AGAR GAREEB -'AAMIR YA SAMARTH' HO JAYEGA TO 'INKA SAWAYM KA MAHATVA KHATM HO JAYEGA',...(HALANKI SACCHA INSAAN AGAR INSAANIYAT KE LIYE LADTA HAI TOOOO AAPNE NEK KAMON SE KAHIN BHI MAHATVA BANA SAKTA HAI, SHAYAD INKO ISSKA BHAN NAHIN HAI).......SOCHNE KI BAAT HAI!!!

....ISLIYE INKI AAPRADHIK MANOVIGYAN KO SAMAJH KER,BAGAIR ISS NAXALVAD KI SAMASYA KO ROMANTICISE KERE,PUREEE SAMSYA(NAXALVAD) KE TAH TAK SAMAJH KER SANTULIT TARIKE SE NEETIYAN BANAYI JANI CHAHIYE TAKI YEH LOG VYAKUL HOKAR DANTEWADA JAISI VARDAT PHIR NA KAREN, AUR SAMASYA DILUTE HUE BAGAIR SULAJHNE KI DEESHA MEIN BADHE.CHUNKI AAM AADIWASIYON KO ISSE SE ZYADA MATLAB NAHIN HAI KI KISNE ISS AANDOLON PER KABJA KER LIYA HAI...UNHE SAMADHAN CHAHIYE...DO WAQT KI ROTI AUR ROJMAREE KA SHANTIPURNA JEEVAN!!!

...YEHI VAJAH HAI KI CHATTISGARH MEIN SALWAJUDUM AANDOLAN SHURU KARNEWALE AADIWASI NETA...SHRI MAHENDRA KARME AUR JHARKHAAND KE AADIWASION KE MASIHA- GURUJI SHRI SHIBU SOREN SATTA TAK PAHOONCH KER BAHUT LOKPRIYE NAHIN RAHE....QUONKI UNHONE IINKE BAJAYE AAPNE LIYE ZYADA SOCHNA SHURU KER DIYA....HALANKI YEH BHI KATU SATYA HAI KI JABTAK AAP KUCH KERNE KI STHITI MEIN NA HON, KISSI KI BAHUT AADHIK MADAD NAHIN KER SAKTE...SIWAYE VYACHARIK BADLAO, VA JANJAGRAN, JAN-AVCHETAN KO JHAKJHORANEIN KE!!!)


माओवादी हत्यारों के मक्कार मित्रों के चालाक तर्कों या कुतर्कों का जवाब नहीं। उनका कहना है कि ये भारत के लोकतंत्र और व्यवस्था के खिलाफ देश के वंचित आदिवासियों की लड़ाई है। सारे आदिवासी वंचित नहीं हैं जैसे सारे नागरी और सवर्ण कहे जाने वाले अन्याय से मुक्त नहीं है। फिर भी कुतर्क ही सही, उनकी बात सुनन...े में क्या हर्ज है? सुनना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि अप्रैल 1967 में बंगाल के सिर्फ एक जिले दार्जिलिंग से नक्सलबाड़ी थाना इलाके में एक आंदोलन शुरू हुआ था और आज उसी से प्रेरणा पा कर चल रहा माओवादी आंदोलन देश के 23 राज्यों, 250 जिलों और 2000 पुलिस थानों के क्षेत्र में फैल गया है।
कुल 92 हजार वर्ग किलोमीटर यानी भारत के भूगोल का 40 प्रतिशत माओवादी आतंक के कब्जे में हैं जिनके बीस हजार हथियारबंद लोग हैं और पचास हजार सहयोगी है। इस बीच में पुलिस का बजट केंद्र और राज्यों में छह सौ गुना बढ़ गया है और हम माओवाद से मुकाबला नहीं कर पा रहे हैं। इसका एक तर्क यह है कि 1947 से 2004 के बीच विकास के नाम पर लगभग ढाई करोड़ आदिवासियों को बेदखल किया गया और उनमें से 72 प्रतिशत को अब भी पुनर्वास नहीं मिला है।
जाहिर है कि अन्याय हुआ है। लेकिन अगर इसी अन्याय के प्रतिरोध और प्रतिशोध में यह आदिवासी माओवादी बन गए होते तो उनकी संख्या कम से कम एक करोड़ होनी चाहिए थी। विस्थापन सिर्फ छत्तीसगढ़, झारखंड और बंगाल में नहीं हुआ है, पंजाब और हरियाणा में भी हुआ है और वहां के ग्रामीण और आदिवासी माओवादी क्यों नहीं बन गए? दरअसल आदिवासियों ने हमेशा अपने साथ हो रहे अन्याय का प्रतिरोध किया है और सिंधू कानु, विरसा मुंडा और टीटूमीर जैसे उदाहरण हमारे सामने है। मगर ये सब अपने संस्कारों और विचारों के साथ लड़ रहे थे। उन्हें किसी मार्क्स, लेनिन या माओ ने अपने अधिकारो के लिए लड़ना नहीं सिखाया था। तथाकथित सोवियत और चीनी क्रांति से बहुत पहले भारत में अंग्रेज सरकार के खिलाफ विद्रोह हो चुका था और इसके लिए भी किसी आयातित विचार का सहारा नहीं लिया गया था।
माओवादी और उनके मित्र बार बार बखान करते हैं कि यह गरीब आदिवासियों की लड़ाई है और सभ्य समाज को इसमें उनका साथ देना चाहिए। दूसरे शब्दों में माओवाद एक असभ्य समाज की लड़ाई है। यह पूरी की पूरी आदिवासी संस्कृति के अपमान की सुविधापूर्ण साजिश है। लेकिन जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से ले कर अन्य वैचारिक गुफाओं में बैठे चिंतक इस पर गौर नहीं करते। वे इस बात पर भी गौर नहीं करते कि माओवादियों के नेता रेड्डी, बनर्जी और मजूमदार किस्म के लोग हैं लेकिन आज तक जितने भी माओवादी मारे गए हैं उनमें से इन नामों के लोग बहुत खोजने पर भी नहीं मिलते। उन्होंने मरने के लिए आदिवासियों को खरीद लिया है।
एक दिक्कत समाज की यह है कि आदिवासियों के बारे में यह माना जाने लगा है कि वे खुद अपना प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते। इसीलिए माओवादी मसीहा उनके लिए फरिश्ता बन कर आए हैं। जवाब में कहा जाता है कि आखिर माओवादियों का प्रतिनिधित्व करने के लिए छत्तीसगढ़ सरकार ने भी सल्वा जुडूम नाम का संगठन खड़ा किया था जो आदिवासियों का प्रतिनिधित्व कर रहा है। सल्वा जुडूम रमन सिंह ने नहीं बनाया। इसकी परिकल्पना छत्तीसगढ़़ में आदिवासियों के एक अच्छे खासे लोकप्रिय नेता महेंद्र कर्मा ने की थी। यह बात अलग है कि पिछली विधानसभा मंे प्रतिपक्ष के नेता रहे महेंद्र कर्मा को इस विधानसभा चुनाव में उनके आदिवासी मतदाताओं ने ही हरा दिया लेकिन इससे यह स्थापना गलत नहीं हो जाती कि सल्वा जुडूम एक आदिवासी आंदोलन का विचार था।
अब आदिवासियों को उस मास मीडिया का सहारा है जो इंटरनेट और ब्लॉग पर मानवाधिकार के नाम पर लाशों के चेहरे और पुलिस तथा व्यवस्था के दमन की कहानियां कहते रहते हैं और फिर अचानक कोई अरुंधती राय या कोई विनायक सेन प्रकट हो जाते हैं जो इसे वर्ग संघर्ष कहते हैं। आदिवासी आदिवासियों को मार रहे हैं। यह कौन सा वर्ग संघर्ष हैं? दंतेवाड़ा में जो 76 सीआरपीएफ जवान मारे गए वे भी गरीब घरों के लड़के थे और उनके साथ यह किस किस्म का वर्ग संघर्ष चल रहा है? किसके लिए चल रह है और इसका नतीजा क्या होने वाला है? हमें तो यह भी नहीं मालूम कि जो आदिवासी माओवादी दलम में आगे चल कर बंदूक चला रहे हैं उनकी पीठ पर कोई और बंदूक तो नहीं टिकी हुई है?
हमारे माओवादी विचारक मित्रों का मानना है कि जो उनके साथ नहीं हैं, वह उनके खिलाफ है। वे बार बार पर्चे बांटते हैं कि आप लोगों को सरकार ने न राशन दिया, न अस्पताल दिए, न स्कूल दिए और न नौकरियंा दी। हम आपको ये सब दे रहे हैं। कैसे दे रहे हैं यह सब जानते हैं। मनरेगा के हजारों करोड़ रुपए सरपंचों को धमका कर ये माओवादी वसूल करते हैं और उनमें से दस बीस लाख रुपए में चिकित्सा शिविर, राशन और शिक्षा पर खर्च कर देते हैं। शिक्षा में भी यह नहीं सिखाया जाता कि हमारा राष्ट्रगान क्या है और हमारे राष्ट्र ध्वज में कितने रंग हैं?
सिखाया यह जाता है कि माओवादी देश का झंडा लाल है और इसका एक ही नारा है और वो है लाल सलाम। माओवादी भारत की सरकार के खिलाफ घोषित तौर पर युद्व लड़ रहें हैं और भारत के संविधान की धारा 121 के अनुसार भारत के शत्रु है। उनके और सरकार के बीच सिर्फ गोली का रिश्ता रह गया हैं।
ऐसे में हम अपने गृह मंत्री पी चिदंबरम का क्या करें जो अब भी माओवाद को कानून और व्यवस्था का मसला मानते हैं और कहते हैं कि माओवाद से निपटने की असली जिम्मेदारी राज्य सरकार की है। दिग्विजय सिंह जब उन्हें कानून व्यवस्था और आतंकवाद के बीच का फर्क समझाना चाहते हैं तो वे सुनने को राजी नहीं और दिग्विजय सिंह जब अखबार में लिख कर यही बात कहते हैं तो उन्हें सोनिया गांधी और पता नहीं किस किस के सामने सफाई देनी पड़ती है।
झारखंड में जंगल महल से शुरू हुआ माओवादी आंदोलन माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर- एमसीसी और मार्क्सवादी लेनिनवादी पार्टी के पीपुल्स वॉर ग्रुप से जन्मा है। इन आदिवासियों के लिए माओवादी भी उतने ही बाहर के लोग हैं जितने अबूझमाड़ के जंगलांे में रहने वाले और अपनी परंपराओं के कवच में जीवित आदिवासियों के लिए बाहर के लोग और सरकारी अधिकारी है। सच यह है कि माओवादियों का आदिवासियों और वनवासियों में जितना असर हैं उससे कम संघ परिवार के बनवासी और आदिवासी कल्याण का नहीं है। जाहिर है कि आदिवासी अपने प्रतिरोध की लड़ाई खुद लड़ रहे थे और माओवादियों ने आ कर उस पर कब्जा जमा लिया।
अच्छा है कि माओवादी यह मान कर चल रहे हैं कि सारे आदिवासी उनके साथ है। जबकि असल में ऐसा हैं नहीं। आदिवासियों के बड़े वर्ग को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि व्यवस्था कौन सी हैं और इस व्यवस्था के बदल जाने से उन्हंे क्या फर्क पड़ेगा? आदिवासियों के साथ हमारे समाज ने भी कम अन्याय नहीं किया हैं लेकिन माओवादियों को इससे कोई अधिकार नहीं मिल जाता कि वे एक समानांतर शोषणतंत्र खड़ा करे। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के ताकत सामने खड़े इन माओवादियों का इंतजार मौत कर रही है और चिदंबरम जैसे लोगों को अब भी समझ जाना चाहिए कि यह सिर्फ कानून व्यवस्था का मामला नहीं है।

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